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भगवद गीता में काल कौन है?

Who Is Kaal in Bhagavad Gita?

Who Is Kaal in Bhagavad Gita?

भगवद गीता में काल कौन है? | काल का अर्थ, श्लोक 11.32 और आध्यात्मिक रहस्य

भगवद गीता न केवल एक धार्मिक ग्रंथ है बल्कि यह जीवन, मृत्यु, कर्म और मोक्ष जैसे गूढ़ विषयों की व्याख्या करता है। इसमें श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए उपदेशों में एक बहुत ही रहस्यमय तत्व सामने आता है – “काल”। भगवद गीता के अध्याय 11 में जब श्रीकृष्ण अपना विराट रूप दर्शाते हैं, तब वे कहते हैं: “कालोऽस्मि लोकक्षयकृत प्रवृद्धो…” यानी “मैं काल हूँ, संसार का संहारक।”

काल का शाब्दिक और दार्शनिक अर्थ

संस्कृत में “काल” का सामान्य अर्थ होता है “समय”। लेकिन धार्मिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो काल केवल समय नहीं, बल्कि सृष्टि का चक्र है जिसमें जन्म, जीवन और मृत्यु सम्मिलित हैं। यह परिवर्तन का प्रतीक है, वह शक्ति है जो हर वस्तु को क्षणभंगुर बनाती है।

काल को हिन्दू दर्शन में ब्रह्मांडीय समय, यमराज (मृत्यु के देवता), और शिव के उग्र रूप काल भैरव के रूप में भी देखा जाता है। भगवद गीता में काल का प्रयोग केवल समय के रूप में नहीं बल्कि एक संहारक शक्ति के रूप में हुआ है।

भगवद गीता में काल का संदर्भ (श्लोक 11.32)

भगवद गीता के अध्याय 11 में अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण अपना विराट रूप दिखाते हैं। इस रूप में वे इतने भव्य और भयावह दिखाई देते हैं कि अर्जुन भयभीत हो जाते हैं। जब अर्जुन उनसे पूछते हैं कि आप कौन हैं, तब श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं:

श्लोक 11.32: कालोऽस्मि लोकक्षयकृत प्रवृद्धो, लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।

भावार्थ: “मैं काल हूँ, जो संसार का विनाश करने के लिए प्रकट हुआ हूँ।”

यह श्लोक यह स्पष्ट करता है कि काल का रूप केवल समय नहीं बल्कि वह शक्ति है जो सभी प्राणियों का अंत सुनिश्चित करती है। श्रीकृष्ण स्वयं को काल बताकर यह संकेत देते हैं कि वे ब्रह्मांडीय नियमों के पालनकर्ता हैं और सृष्टि में कोई भी उनकी इच्छा के बिना कार्य नहीं कर सकता।


श्रीकृष्ण ने स्वयं को काल क्यों कहा?

श्रीकृष्ण का स्वयं को काल कहना एक अत्यंत गूढ़ दर्शन को प्रकट करता है।

  1. कर्तापन का अभाव: वे अर्जुन को यह समझाना चाहते हैं कि वह मात्र एक माध्यम है, असली कार्य तो काल द्वारा अर्थात ब्रह्म की शक्ति द्वारा पहले से ही निर्धारित हो चुका है।
  2. मृत्यु का भय समाप्त करना: युद्ध भूमि में खड़ा अर्जुन मृत्यु से डर रहा था। श्रीकृष्ण ने उसे यह समझाया कि काल तो सबको नष्ट करेगा ही, चाहे अर्जुन युद्ध करे या न करे। इसलिए वह धर्म के लिए कर्म करे।
  3. जीवन की क्षणभंगुरता: काल के रूप में श्रीकृष्ण ने यह दिखाया कि जो उत्पन्न हुआ है, उसका नाश भी निश्चित है। यही संसार का नियम है।

काल का प्रतीकात्मक महत्व

भगवद गीता में काल केवल मृत्यु का प्रतीक नहीं बल्कि कर्म और फल के चक्र का नियंत्रक है।


हिन्दू धर्म में काल की अन्य व्याख्याएँ

  1. काल भैरव: शिव का एक उग्र रूप, जो काल यानी समय और मृत्यु का नियंत्रण करता है।
  2. यमराज: मृत्यु के देवता, जो जीव की मृत्यु के समय उसे न्याय के लिए ले जाते हैं।
  3. काल और युग: हिन्दू धर्म में समय को युगों में बांटा गया है – सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, और कलियुग। प्रत्येक युग काल की एक विशेष स्थिति को दर्शाता है।

काल और आत्मा का संबंध

भगवद गीता कहती है कि आत्मा अमर है, लेकिन शरीर नश्वर है। काल शरीर का नाश करता है, आत्मा को नहीं। इसलिए आत्मा को जानने वाला व्यक्ति मृत्यु से भयभीत नहीं होता।


आधुनिक युग में काल का संदेश

आज के समय में काल का अर्थ केवल मृत्यु नहीं है, बल्कि चेतावनी भी है कि समय अमूल्य है। जो समय की कद्र करता है, वह जीवन में सफल होता है।


निष्कर्ष

भगवद गीता में काल का उल्लेख श्रीकृष्ण के विराट रूप में एक संहारक शक्ति के रूप में किया गया है। यह केवल मृत्यु का प्रतीक नहीं बल्कि ब्रह्मांडीय न्याय का द्योतक है। जो व्यक्ति काल को समझ लेता है, वह मृत्यु से नहीं डरता, वह जानता है कि आत्मा अमर है और सच्चा ज्ञान ही मोक्ष की राह है।

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